Sunday 19 March 2017

ज़िंदगी

उन शोख़ियों से भरी पल्कों
के पीछे, अश्कों को छिपाती वो
जाने कित समन्दर पार कर गई,
पिंजरा तोड़कर, मुँह मोड़कर,
जाने कहाँ वो भाग गई?

कल आई थी वो मेरे
ख़्वाबों की डगर पर
करने मुझसे शिकवे वहाँ ,
आँखों से अपना दर्द छलकाकर
बिन कहे कह गई अपनी ज़ुबान!

भागता चला गया मैं
सब पाने की चाह में,
सराब सा समाया था निगाहों में
रहा उनमें डूबा मैं!

आज जो दौड़कर थकने लगा हूँ
तो याद आती है वो सुंदर सखी
जिसके संग था खेलता मैं
बचपन से ही लुका- छुपी!

अब जो आया हूँ उसे ढूँढने 
सब पीछे छोड़कर मैं,
नहीं सकती वो मुझसे मिलने
वक़्त से हुआ हूँ शिकस्ता मैं!!

है जाना मैंने विछोह से,
आख़िर थी जो कोताही मेरी,
"और" पाने की चाह में भागकर
गँवाई थी मैंने ज़िंदगी मेरी!!

-ऋचा

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